हिमाचल प्रदेश की खूबसूरत घाटी है किन्नौर, जिसके नयनाभिराम सौन्दर्य से कोई भी पर्यटक सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता। पांच हजार से आठ हजार मीटर ऊंची पर्वत श्रंखलाओं से घिरी किन्नौर घाटी धरती पर स्वर्ग से कम नहीं। घुमक्कड इसे बर्फ और झरनों की घाटी के साथ-साथ सौन्दर्य की खान तक कह देते हैं। यहां का सौन्दर्य नयनाभिराम है। प्रकृति के विभिन्न रूप यहां परिलक्षित होते हैं। आसमान छूते हिमशिखर, बादलों में लिपटे वृक्ष, सेब और केसर की सौंधी सौंधी महक, फूलों का परिधान ओढे घाटियां, बर्फीले झरनें, संगीत गुनगुनाती नदियां… सैलानी अभिभूत सा हो उठता है… प्रकृति के समक्ष नतमस्तक।
किन्नौर हिमाचल प्रदेश का कबायली इलाका है जिसका जिक्र महाभारत काल में भी मिलता है। कुछ इतिहासकारों के मत में अर्जुन ने जिस ‘इमपुरुष’ नामक स्थान को जीता था, वह वास्तव में किन्नौर ही था। कुछ विद्वानों की राय में पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का आखिरी समय यहीं गुजारा था। यह भी मान्यता है कि किन्नौर ने इसी क्षेत्र में महाभारत से बहुत पहले हनुमान के साथ राम की उपासना की थी।
कुछ समय पहले तक इस जनजातीय क्षेत्र में सैलानियों का बिना परमिट लिये प्रवेश वर्जित था जिससे इसकी सुन्दरता बरकरार थी। लेकिन गृह मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी करके यह घाटी सैलानियों के लिये खोल दी है और अब वांगतू से शुरू होने वाली इनर लाइन से आगे प्रवेश करने के लिये परमिट लेने की जरुरत नहीं पडती। सिर्फ विदेशी सैलानियों को सुरक्षा की-ष्टि से किन्नौर की कल्पा और सांगला घाटियों से आगे जाने के लिये अनुमति लेनी पडती है।
इस अनूठी घाटी की यात्रा हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से शुरू होती है और कहीं सुरम्य तो कहीं खतरनाक, ढलानदार पहाडी सडकों पर गुजरती गाडी कभी मस्ती तो कभी रोमांच भर देती है। कहीं संकरे रास्ते किसी गुफा से गुजरने का भ्रम पैदा कर देते हैं तो कहीं सतलुज नदी पछाडें मारती साथ चलती सी लगती है। शिमला से छह घण्टे का सफर तय करने के बाद रामपुर बुशैहर नामक एक खूबसूरत और ऐतिहासिक स्थल आता है। हिन्दुस्तान-तिब्बत राष्ट्रीय मार्ग पर स्थित रामपुर के राजमहल पहाडी वास्तुकला के अनुपम उदाहरण हैं। रामपुर बुशैहर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के व्यापारिक मेले ‘लवी’ के लिये भी मशहूर है। यह मेला हर साल 11 से 14 नवम्बर तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस मेले का शुभारम्भ 1681 में बुशैहर रियासत के राजा केहरी सिंह और तिब्बत के बीच हुए व्यापारिक समझौते के परिणामस्वरूप हुआ था। इस समझौते को नमग्या अभिलेख के नाम से जाना जाता है जिसके अनुसार जब तक कैलाश पर्वत पर बर्फ जमी रहेगी और मानसरोवर में पानी रहेगा तब तक दोनों राज्यों में दोस्ती रहेगी।
रामपुर के बाद आता है ज्योरी और यहां तक का सफर बडा रोमांचकारी है। फिर अगला पडाव सराहन है जो शिमला की सीमा कुछ आगे खत्म होने की घोषणा करता है। सराहन भले ही एक खूबसूरत रमणीय गांव है लेकिन कभी यह बुशैहर रियासत की राजधानी था। यहां सुप्रसिद्ध भीमाकाली मन्दिर और चांदी पर अंकित देवप्रतिमाएं पर्यटकों पर जादू सा असर करती हैं।
पहाडों का वक्ष चीरकर जिस तरह सडकें बनाई गईं हैं, इंजीनियरों के अथक परिश्रम और कार्यकुशलता का नमूना हैं। रास्ते में झर-झर झरते झरनों को देखकर मन प्रफुल्लित हो उठता है। ऐसा ही सफर तय करके आता है भावनगर। हिमाचल की मशहूर संजय विद्युत परियोजना यहीं है। पूरी तरह से भूमिगत यह परियोजना उच्च स्तरीय तकनीक का जीवंत उदाहरण है। यहां से करीब दस किलोमीटर आगे वांगतू पुल है। पहले यहां पुलिस चैकी पर परमिट चैक किये जाते थे लेकिन अब यह क्षेत्र सैलानियों के लिये खोल दिये जाने के कारण ऐसा नहीं होता। लेकिन औपचारिकता निभाने के लिये पुलिसकर्मी अपनी तसल्ली जरूर करते हैं। वांगतू से आगे आता है टापरी और फिर कडछम। कडछम इस जिले की दो प्रमुख नदियों सतलुज और वास्पा का संगम कहलाता है। वास्पा नदी यहां सतलुज के आगोश में समा जाती है। यहां से एक मार्ग इस घाटी के एक खूबसूरत स्थल सांगला को जाता है।
सांगला किन्नौर की सर्वाधिक प्रसिद्ध और रमणीय घाटी है। समुद्र तल से करीब ढाई हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित सांगला घाटी को पहले वास्पा घाटी भी कहा जाता था। ऐसी भी मान्यता है कि पूरी सांगला घाटी कभी एक विशालकाय झील थी, लेकिन कालान्तर में इस झील का पानी वास्पा नदी में तब्दील हो गया और बाकी क्षेत्र हरियाली से लहलहा उठा। भले ही यह मात्र किंवदंती ही हो लेकिन रंगीन फसलों, फूलों का परिधान ओढे सांगला घाटी स्वर्ग से कम नहीं लगती। अनेक घुमक्कडों ने अपने संस्मरणों में इस घाटी के नैसर्गिक सौन्दर्य का वर्णन किया है। सांगला में बेरिंग नाग मन्दिर और बौद्ध मठ दर्शनीय है। सांगला में ही कृषि विश्वविद्यालय का क्षेत्रीय अनुसंधान उपकेन्द्र स्थित है। सांगला के ऊपर कामरू गांव है। यहां का पांच मंजिला ऐतिहासिक किला कला का उत्कृष्ट नमूना है। गांव के बीच में ही नारायण मन्दिर और बौद्ध मन्दिर स्थित हैं और दोनों मन्दिरों का एक ही प्रांगण है। नारायण मन्दिर की काष्ठकला देखती ही बनती है। सांगला घाटी से किन्नर कैलाश के दर्शन भी किये जा सकते हैं। वास्तव में किन्नर कैलाश के पृष्ठ भाग में ही यह घाटी फैली हुई है। यहां पर आप किन्नौरी शालें और टोपियां खरीद सकते हैं।
यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य की तरह यहां के लोग भी सुन्दर हैं। किन्नर बालाएं फूलों से सुसज्जित अपनी परम्परागत टोपियां पहनती हैं। टोपियों के दोनों ओर पीपल पत्र नामक चांदी का एक गहना बना होता है और चांदी के ही एक नक्काशीदार कडे पर कसा रहता है। अपने शरीर को ये ऊनी कम्बल से साडी की भांति लपेटे रखती हैं। इस ऊनी कम्बल को स्थानीय भाषा में ‘दोहडू’ कहा जाता है।
किन्नरियों में मेहमानों के आदर-सत्कार की भावना भी बहुत होती है। मेहमानों का स्वागत वे अपने हाथों से शराब पेश करके करती हैं। ऐसा करते समय उन्हें कोई संकोच नहीं होता, क्योंकि शराब को किन्नर समाज में महत्व प्राप्त है, लेकिन ताज्जुब की बात यह भी है कि जहां किन्नरियां शराब को बनाने से लेकर पेश करने तक का कार्य अपने हाथों से करती हैं, वहीं वे स्वयं शराब को मुंह तक नहीं लगातीं। शाल बुनने में तो उनका कोई सानी नहीं है। उनकी बनाई शालों में प्रकृति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं। सर्दियों में जब भारी बर्फबारी के कारण किन्नौर का सम्पर्क शेष दुनिया से कट जाता है तो किन्नरियां ऊनी कपडे, कालीन और अन्य चीजें बुनने का काम करती हैं। उनके बनाये ऊनी वस्त्रों में डोहरियां, पट्टू, गुदमा आदि उल्लेखनीय हैं।
सांगला से 14 किलोमीटर आगे रकछम गांव है। समुद्र तल से करीब तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित रकछम का नामकरण रॉक और छम के मिलन से हुआ है। रॉक अर्थात चट्टान या पत्थर और छम यानी पुल। कहते हैं कभी यहां पत्थर का पुल हुआ करता था, जिस वजह से गांव का नाम ही रकछम पड गया। रकछम से 12 किलोमीटर दूर किन्नौर जिले का आखिरी गांव है- छितकुल। लगभग साढे दस हजार फीट की ऊंचाई पर चीन की सीमा के साथ सटा है यह गांव। आबादी होगी कोई पांच सौ के करीब। साठ-सत्तर घर हैं। एक ओर वास्पा नदी बहती है तो दूसरी ओर दैत्याकार नंगे पहाड दिखते हैं। साल में चार माह से ज्यादा यह हिमपात के कारण दुनिया से कटा रहता है। उत्तराखण्ड के गंगोत्री और चीन के तिब्बत इलाके से सटे इस गांव में आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी, पशु चिकित्सालय, ब्रांच पोस्ट ऑफिस, पुलिस पोस्ट और स्कूल जैसी आधुनिक सुविधाएं हैं।
सांगला के बाद दूसरी खूबसूरत घाटी कल्पा है, लेकिन कल्पा पहुंचने के लिये पहले फिर से करछम लौटना पडता है। करछम से करीब 20 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद आता है- पियो और यहां से 15 किलोमीटर आगे कल्पा है। दुर्गम चढाई तय करने के बाद जब सैलानी कल्पा पहुंचता है, तो एक शहर सरीखा कस्बा देख उसकी बांछें खिल जाती हैं। यही कल्पा किन्नौर घाटी का मुख्यालय है और यहां सभी आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं। कहते हैं कि यहां मूसलाधार बरसात नहीं होती बल्कि हल्की हल्की सी फुहारें पडती हैं। यहां के झरनों की छटा निराली है। ये गुनगुनाते झरने यहां सैलानी को मंत्रमुग्ध कर देते हैं, वही यहां के खेतों और बागों को सींचते भी हैं।
किन्नौर घाटी वर्ष में तकरीबन छह मास बर्फ की सफेद चादर से ढकी रहती है। अगस्त से अक्टूबर तक का मौसम यहां खुशगवार होता है। इन्हीं दिनों यहां सैलानियों और घुमक्कडों का सैलाब उमडता है। सेब, खुबानी, चूली, बग्गूगोशे, चिलगोजे और अंगूर यहां उम्दा किस्म के होते हैं। अंगूर की शराब भी यहां बडे चाव से पी जाती है। किन्नौर में वर्ष भर त्यौहारों का सिलसिला चलता रहता है। ‘फूलैच’ किन्नौर घाटी का प्रमुख त्यौहार है। इस त्यौहार को ‘उख्यांग’ के नाम से भी जाना जाता है। ‘उख्यांग’ दो शब्दों ‘ऊ’ और ‘ख्यांग’ से मिलकर बना है। ‘ऊ’ का अर्थ है फूल और ‘ख्यांग’ फूलों को देखना। यह त्यौहार फूलों के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।